मैं जन्म से पुरुष हूँ।
मन मे महिला।
स्कूल में बच्चे मुझे हिजड़ा, छक्का, और जाने क्या क्या बुलाते थे।
माँ मुझे देखकर अक्सर ही रो देती थी।
पापा तो बस मुझे देखना ही नही चाहते थे।
स्कूल में एक मास्टर थे, मुझे टेढ़ा टेढ़ा देखते थे।
अक्सर मुझे स्टाफ रूम में बुलाकर, मुझे अनचाहे तरीके से छूते थे।
मैने घर मे कहा तो जाने क्यों सबको लगा की ये मेरी ही गलती है।
मुझको भी लगा की शायद ये लोग सच कहते होंगे।
फिर जब भी मास्टर जी बुलाते, तो मैं शर्माता, लजाता, घबराता।
और यूँ लगता की ये मेरी ही गलती है।
फिर एक दिन, तानों और अपराध बोध के तले मैं घर से निकल गया।
एक अंधेरे कोने में बैठ सोचा, मैं महिला हूँ या पुरुष।
क्या मेरा तन सही कहता है, या मेरा मन?
क्या मैं बीमार हूँ, या मैं खुद एक बीमारी हूँ?
रास्ते मे जब बढ़ा तो कुछ लोग सही मिले, कुछ गलत।
फिर कुछ लोग मिले जो अपने से थे।
वो भी खुद को समझना ढूंढ रहे थे
मर्दाना और जनाना के सवालों से सभी जूझ रहे थे।
कुछ सवालों के जवाब उनसे मिले, कुछ उलझनें उलझी ही रहीं।
पर हाँ, जो मिला वो कभी सोचा नही था, कल्पनाओं के पार था।
अपनापन मिला, सम्मान मिला, एक अजीब सा उत्साह मिला।
हाँ, मैं शायद समाज मे थोड़ा अलग हूँ।
पर हूँ तो समाज का ही हिस्सा।
फिर क्यों मुझे सिर्फ महिला या पुरुष के तराजू में रखा जाता है?
क्योँ नही मैं बस एक इंसान मान लिया जाता हूँ?
क्योँ ये समाज मुझे अपनाने में घबराता है, सकुचाता है?
सवाल कई हैं, जवाब शायद उतने नही हैं।
पर क्योँ नही मैं बस एक इंसान मान लिया जाता हूँ?