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मैं, मेरी तन्हाई, और वो ब्लेड। चमचमाता, हंसता, मुस्कुराता ब्लेड। जैसे मुझ पर, मेरे अकेलेपन पर हंस रहा हो।
मेरे टूटे हुए सपनों पर, मेरी कही अनकही अधूरी हसरतों पर। मेरी बिखरी हुई ज़िन्दगी पर। मानो हंस रहा हो, जैसे व्यंग्य कर रहा हो।
मानो कह रहा हो की आज वो फिर जीतेगा। मेरी सफेद कलाई को, फिर लाल रंग कर देगा। वो स्टील का ब्लेड मानो चुम्बक सा मुझे खींच रहा हो।
मैंने फिर उसे थामा, और सोचा कि इसकी चमकती मुस्कान को अपने लहू से छुपा दूँ। अपने मन मे होते दर्द को हाथ मे इसे चुभा कर दबा दूँ। इस ठहरी हुई ज़िन्दगी में दर्द ही सही, कुछ तो नया हो। नसों में बहता दर्द उन्हें खोल कर बहा दूँ।
फिर मन मे धीरे से एक बात आई, हल्के से मन मे आवाज़ आयी। बस यार, और नही, अब और नही। अब ब्लेड नही, मैं जीतूंगी, ये अभी मुझपर कितना भी हंस ले। आज की हंसी पर हक़ आज मेरा होगा।
ये जीवन मेरा है, इसको जीने का सलीका भी मेरा होगा। मैं अपने तन्हाई को थामे अलमारी और दरवाज़े बंद कर निकल पड़ी दुनिया की और।
आज मैं हारी नही, पर जीत में कुछ वक्त और लगेगा। पर मेरी कोशिश जारी है, लगता है अब मैं हारूंगी नही।